हायफा, इसरायल स्थित, कार्मल पर्वत पर बाब की समाधि बहाईयों के लिये दुनिया के पवित्रतम् स्थानों में से एक है।

सन् 1844 के वसंत काल की एक शाम को, दो युवाओं के बीच एक सम्वाद हुआ जिसने मानवजाति के लिये एक नये युग की घोषणा की। एक फारसी व्यापारी ने शिराज नगर में आये एक यात्री के समक्ष यह घोषणा की कि ‘वह’ एक ‘दिव्य प्रकटीकरण’ के ‘संवाहक’ हैं, जो मानवजाति के आध्यात्मिक जीवन को बदल देने के लिये नियत हैं। उस व्यापारी का नाम सैय्यद अली मुहम्मद था और इतिहास में ‘उन्हें’ ‘बाब’ के रूप में जाना जाता है (अरबी भाषा में ’बाब’ का अर्थ है ’द्वार‘)।

दुनिया के इतिहास में 19वीं शताब्दी का मध्यकाल सर्वाधिक अशांति और अस्तव्यस्तता का काल था। युरोप और उत्तरी अमेरिका के अधिकांश भागों में बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ छिड़ चुकी थीं, पुराने पड़ चुके सामाजिक ढाँचे और सम्बन्धों को कृषि, उद्योग और आर्थिक क्षेत्रों में आये अचानक और अभूतपूर्व परिवर्तनों के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। उसी समय, पूरी दुनिया में अलग-अलग धर्मों को मानने वालों ने यह महसूस करना शुरू कर दिया था कि मानवजाति अपने विकास के एक नये चरण की दहलीज पर है और अनेक लोगों ने निकट भविष्य में ही प्रतिज्ञापित अवतार के आगमन के लिए अपने को तैयार करना शुरू कर दिया था और प्रार्थनाओं में तल्लीन हो चुके थे ताकि जब वह आये तो वे उन्हें पहचान सकें।

एक तलाश पूरी हुई

मुल्ला हुसैन नाम के एक युवा विद्वान एक ऐसे व्यक्ति थे जो जीवन को बदल कर रख देने वाली खोज में लगे थे। वह जैसे एक चुम्बकीय आकर्षण से शिराज की ओर खिंचते चले आये - शिराज उस समय गुलाब के इत्र और बुलबुल के सुमधुर स्वर के लिये मशहूर था। 22 मई 1844 की संध्या को, जब वह नगर के द्वार तक पहुँचे तब उनका अभिवादन एक कांतिमान युवा द्वारा किया गया जो हरे रंग की पगड़ी बांधे था। इस अजनबी ने मुल्ला हुसैन का अभिवादन कुछ इस प्रकार किया जैसे वे आजीवन मित्र रहे हों।

“वह युवा जो मुझसे शिराज के द्वार के बाहर मिला, मुझे अपनी प्रेमपूर्ण दयालुता और स्नेह से अभिभूत कर गया।” मुल्ला हुसैन याद करते हैं, “उन्होंने बड़े प्रेम से अपने निवास स्थान पर मुझे आमंत्रित किया और वहाँ यात्रा की थकान मिटा कर मैं तरोताज़ा हुआ।”

शिराज में बाब का निवास, जो अब नष्ट हो चुका है, जहाँ उन्होंने अपने मिशन की घोषणा 23 मई 1844 को की।

दोनों व्यक्ति पूरी रात बातचीत में डूबे रहे। मुल्ला हुसैन यह पा कर आश्चर्यचकित थे कि जो विशेषतायें वह प्रतिज्ञापित अवतार में तलाशने निकले थे, वे सब उस युवक में पाई गईं थीं। दूसरे दिन तड़के सुबह विदा लेने के पहले उनका अतिथि-सत्कार करने वाले ने इन शब्दों में उन्हें सम्बोधित किया, “तुम वह पहले व्यक्ति हो जिसने ‘मुझमें’ विश्वास किया है, मैं सत्य कहता हूँ, मैं ‘बाब’ हूँ - ‘ईश्वर का द्वार’ ! अठारह व्यक्ति मुझे अवश्य ही प्रारम्भ में सहज एवं स्वेच्छा से स्वीकारेंगे और मेरे प्रकटीकरण के सत्य को पहचानेंगे।”

बाब की घोषणा के कुछ सप्ताहों के अंदर ही सहज अपने प्रयासों से सत्रह और लोगों ने ‘उनके’ स्थान और पद को स्वीकार किया, अपनी पुरानी जीवन-शैली के सुख-चैन को त्याग दिया और - सभी आसक्तियों और मोह-माया का त्याग कर - ‘उनकी’ शिक्षाओं के प्रसार के लिये निकल पड़े। बाब के ये पहले अठारह अनुयायी सामूहिक रूप से ’जीविताक्षर’ के रूप में जाने गये।

उनमें से एक, कवयित्री ताहिरा ने अतीत से नाता तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही, स्त्रियों और पुरूषों के बीच पूरी समानता के लिये अपनी आवाज़ बुलंद की। उस खोजी दल के अंतिम सदस्य, एक युवा, जिसे ’कुद्दूस‘ अर्थात ’परम पावन‘ की उपाधि दी गई थी, ने भक्ति और साहस के उस स्तर का प्रदर्शन किया जिसने उसे सभी जीविताक्षरों में सर्वाधिक सम्मान का पात्र बना दिया था।

उस रात बाब ने धाराप्रवाह जो शब्द कहे थे उससे मुल्ला हुसैन अभिभूत थे। बाब ने एक सहज और जिस अन्तर्निहित विवेक का प्रदर्शन किया था उसने उनकी युवावस्था में परिवार के सभी लोगों को आश्चर्य में डाल दिया था। “इसे केवल एक साधारण बालक नहीं समझें”, उनके स्कूल-मास्टर ने कहा था, “इसे मुझ जैसे शिक्षक की कोई ज़रूरत नहीं है।”

बाब का मिशन

दक्षिणी ईरान के एक नगर शिराज में 20 अक्टूबर 1819, को जन्मे, बाब अतीत की भविष्यवाणियों वाले युगों और मानवजाति के लिये उन भविष्यवाणियों के पूरा होने के एक नये युग के बीच के प्रतीकात्मक द्वार थे। उनका प्रमुख उद्देश्य इस बात के लिये लोगों को सजग करना था कि मानव-इतिहास में एक नये समय की शुरूआत हो चुकी है, एक ऐसा युग जो सम्पूर्ण मानव नस्ल के एकीकरण को देखेगा, और भौतिक तथा आध्यात्मिक समृद्धि से भरी एक नई सभ्यता का उद्भव होगा इस महान दिवस की स्थापना एक दैविक रूप से प्रेरित ‘शिक्षक’ के प्रभाव से होगी, जिनके सम्बन्ध में बाब ने कहा, “वह जिसे ईश्वर प्रकट करेगा।’’ बाब ने घोषणा की कि यह ‘उनका’ स्वयं का मिशन था कि इस प्रतिज्ञापित ईश्वर के अवतार के आने की घोषणा वह करें। बाब ने स्पष्ट किया कि नये अवतार शांति और न्याय के एक नये युग का प्रारम्भ करेंगे जो सभी उत्कंठा भरे हृदय की आशा रही है और प्रत्येक धर्म का वचन रहा है। बाब ने अपने अनुयायियों को निर्देश दिया कि वे देश में चारों ओर उनके इस संदेश का प्रसार करें और इस बहुप्रतीक्षित दिवस के लिये लोगों को तैयार करें।

बाब के संदेश ने जीवन के हर क्षेत्र के लोगों में आशा और उत्तेजना का संचार किया। हालाँकि अनेक प्रख्यात मुस्लिम धर्माधिकारियों ने बाब को स्वीकारा, अन्य अनेक लोगों ने ‘उनके’ बढ़ते हुये प्रभाव से अपने को असुरक्षित और संकट में पाया और विशेषाधिकारों तथा सत्ता के साथ संस्थापित पदों को लोगों के हाथों में शक्ति दे देने के कारण संकट से घिरा पाया। उन्होंने बाब की शिक्षाओं को अनधिकृत कह कर ‘उनकी’ भत्र्सना की और ‘उन्हें’ तथा ‘उनके’ अनुयायियों को बरबाद करने पर आमादा हो गये। पूरे देश की मस्जिदों और स्कूलों में, गलियों और बाज़ारों में विवाद उठ खड़ा हुआ।

पहाड़ों पर स्थित माहकू का वह क़िला जहाँ बाब को कैद रखा गया था।

परिणामस्वरूप एक नगर से दूसरे नगर के कारागार में बाब को निर्वासित किया जाता रहा। लेकिन उनके शत्रुओं की कोई भी योजना ‘उनके’ प्रभाव को फैलने से रोक नहीं सकी। जहाँ कहीं भी ‘उन्हें’ भेजा गया ‘उनके’ व्यक्तित्व का मनोहारी और चुम्बकीय आकर्षण नागरिक अधिकारियों और जनसामान्य की प्रशंसा प्राप्त करता रहा। बंदीगृह के कठोर गवर्नर और पहरे पर बैठाये गये सैनिक ‘उनके’ अनुयायी बन गये। हर बार वे सोचते थे कि इस बार ‘उनके’ प्रभाव की ज्वाला को वे बुझा देंगे, लेकिन अधिकारियों ने केवल आग में घी डालने का काम किया और उनका जीवनदायी प्रकाश प्रज्ज्वलित रहा। कालान्तर में, बाब की लोकप्रियता इस हद तक बढ़ गई कि कुछ प्रमुख धर्माधिकारियों ने सरकार से उन्हें प्राणदण्ड देने की अपील की। अपने मार्गदर्शक से दूर रह कर भी, बाबियों ने सरकार की पूरी ताकत के विरूद्ध साहसपूर्वक अपना बचाव किया, उधर सरकार ने उन्हें पूरी तरह नष्ट कर देने का आदेश दिया। उनके हज़ारों अनुयायी, जिनमें स्त्री, पुरूष और बच्चे शामिल थे, निर्मम और पाशविक मृत्यु के शिकार हुये।

बाब को प्राणदण्ड

सन् 1850 में, (नासिरूद्दीन शाह के प्रमुख वज़ीर) मिर्ज़ा तकी खान ने बाब को प्राण्दण्ड देने का फरमान जारी किया। 9 जुलाई को जब गार्ड उन्हें प्राणदण्ड देने के लिये ले जाने आये तब बाब ने उनसे कहा कि कोई भी “भौतिक शक्ति” ‘उन्हें’ तब तक कुछ भी नहीं कर सकती जब तक ‘वह’ उसे समाप्त नहीं कर लेते जो ‘उन्हें’ कहना है। तबरीज़ के बैरक के चैक पर जहाँ बाब को प्राणदण्ड दिया जाना था, चारों ओर छतों पर हजा़रों की भीड़ एकत्र हो देख रही थी। तपती धूप की दोपहरी में एक दीवार से लगाकर बाब को रस्सियों से उनके एक युवा अनुयायी के साथ बांध दिया गया था। 750 सैनिकों के एक जत्थे ने लगातार तीन क्रम में गोलियों की बौछार की। जब बारुद के धुएँ और धूल का बादल छटा तब बाब वहाँ नहीं थे। केवल ‘उनका’ युवा अनुयायी वहाँ जीवित और बिना किसी ख़रोच के, जिस दीवार पर उन्हें बाँधा गया था उसके पास, खड़ा था। केवल रस्सियाँ जिनसे उन्हें बांधा गया था जल चुकी थीं। खोजे जाने पर बाब अपने बंदीगृह में पाये गये जो अपने सचिव के साथ अपनी बातें पूरी करते हुये दिखे।

‘अपने’ बन्दीकर्ताओं से बाब ने कहा, “तुम अब अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हो।” प्राणदण्ड देने के लिये उन्हें फिर बाहर लाया गया। जब पहली टुकड़ी ने गोली चलाने से मना कर दिया तब दूसरा जत्था बुलाया गया और उन्हें गोलियां दागने का आदेश दिया गया। इस बार बाब और ‘उनके’ युवा अनुयायी के शरीर क्षत-विक्षत थे। पूरे नगर को धूल की आँधी ने अपना ग्रास बनाया, जिसने सूर्य के प्रकाश को तब तक ढँके रखा जब तक रात न हो गई।

आधी शताब्दी से भी अधिक समय तक बाब के पार्थिव अवशेष को छिपा कर रखे जाने के बाद अंततः सन् 1909 में पवित्र भूमि के कार्मल पर्वत पर भूमिगत किया गया। आज एक उत्कृष्ट स्वर्णिम गुम्बदवाली ‘समाधि’ में भूमिगत, भव्य खुली छतों वाले उद्यान और झरनों से घिरे, बाब अपने स्पष्ट गौरव के साथ समाधिस्थ हैं, प्रभुधर्म की एक ऐसी विजय का प्रतीक जिसे उन्होंने, क्रूरतम विरोधों के बावजूद, मार्गदर्शन दिया। आज पूरी दुनिया के लाखों लोग बाब को दिव्य रूप से प्रेरित बहाई धर्म के ‘अग्रदूत’ मानते हैं और श्रद्धापूर्वक उनके लेखों को पढ़ते हैं, ताकि वे “ईश्वर के दैदीप्यमान प्रकाश की खोज कर सकें।’’

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