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बहाउल्लाह और ‘उनकी’ संविदा

अब्दुल‑बहा – परिपूर्ण उदाहरण

अब्दुल-बहा का जीवन

22 मई 1844 की संध्या को मानव इतिहास का एक महत्वपूर्ण क्षण घटित हुआ। ईरान के शीराज़ नगर में बाब ने संसार के लिए एक नए धार्मिक चक्र के प्रारंभ की घोषणा की।

उसी संध्या को मध्यरात्रि में, तेहरान में एक शिशु का जन्म हुआ। बहाउल्लाह ने, अपने पिता के सम्मान में, अपने नवजात पुत्र का नाम ‘अब्बास रखा। लेकिन समय के साथ, ‘अब्बास ने स्वयं को ‘अब्दुल-बहा, अर्थात “बहा का सेवक” कहलाना चुना, और मानवता की सेवा से परिपूर्ण अपने जीवन के माध्यम से, वे बहाउल्लाह की शिक्षाओं के सजीव मूर्त रूप और आदर्श के रूप में जाने गए।

बाल्यावस्था

‘अब्दुल-बहा का बचपन सुखमय था, किन्तु बाब के अनुयायियों के विरुद्ध घोर उत्पीड़न शुरू हो गए—जिनमें सबसे प्रमुख बहाउल्लाह थे। बाबी होने के कारण बहाउल्लाह की कारावास उनके परिवार के जीवन में एक निर्णायक मोड़ था। जेल में बहाउल्लाह को—उनके उलझे बाल-दाढ़ी, भारी लोहे के पट्टे से सूजा गला, जंजीरों से झुका शरीर—अपने आठ वर्षीय पुत्र के मन में अमिट छाप छोड़ गई।

दिसंबर 1852 में, बहाउल्लाह को चार माह के बाद जेल से रिहा कर दिया गया। लगभग तुरंत ही, उन्हें अपने परिवार के साथ ईरान से निर्वासित कर दिया गया। वे फिर कभी अपनी मातृभूमि न देख सके। बग़दाद की यात्रा के दौरान, ‘अब्दुल-बहा को शीत-ज्वर (फ्रॉस्टबाइट) हो गया और अपने छोटे भाई मेहदी से बिछड़ने का दुःख हुआ, जो कठिन यात्रा के लिए पर्याप्त स्वस्थ नहीं थे।

बग़दाद पहुँचने के कुछ समय बाद ही एक और कष्टदायक जुदाई का समय आया, जब बहाउल्लाह दो वर्षों के लिए कुर्दिस्तान के पर्वतों में एकांतवास के लिए चले गए। अपने प्रिय पिता की अनुपस्थिति में, ‘अब्दुल-बहा ने अपना समय बाब के पावन लेखों का अध्ययन एवं चिन्तन करने में लगाया।

बहाउल्लाह की सेवा

जब बहाउल्लाह अंततः लौटे, तब 12 वर्षीय बालक ‘अब्दुल-बहा प्रसन्नता से अभिभूत हो गया। अपनी कोमल आयु के बावजूद, ‘अब्दुल-बहा ने सहज रूप से अपने पिता के पद की पहचान कर ली थी। आगामी वर्षों में, ‘अब्दुल-बहा बहाउल्लाह के प्रतिनिधि और उनके सचिव बन गए।

युवावस्था में अब्दुल-बहा, जब उनके पिता का निष्कासन एड्रियनोपल हुआ था, 1863-1868 के दौरान खींचा गया चित्र।

उन्होंने अपने पिता को अनावश्यक हस्तक्षेप एवं द्वेष रखने वालों से सुरक्षित रखा और वे अपने पिता के अनुयायियों के बाहर के लोगों के बीच भी सम्मानित हुए, विद्वानों व बुद्धिजीवियों के साथ उनके विचार-विमर्श में भाग लिया। किशोर अवस्था में लिखी गई उनकी एक व्याख्या (टीका) में उनका गहरा ज्ञान, समझ और भाषा में अद्भुत निपुणता परिलक्षित होती है। निर्वासन के काल में ‘अब्दुल-बहा ने नागरिक अधिकारियों के साथ कई चर्चाओं व समझौतों का भी दायित्व संभाला।

बहाउल्लाह के अंतिम निर्वासन में ‘अक्का नगर के दौरान, ‘अब्दुल-बहा ने निरंतर अपने पिता की सुरक्षा की, उनके अनुयायियों की देखभाल की, नगर के गरीब और बीमार लोगों की सेवा की, और निष्ठुर जेलर, क्रूर प्रहरी तथा शत्रुतापूर्ण अधिकारियों के सामने भी न्याय के मुद्दों पर अविचलित रहे। ‘अब्दुल-बहा की उदारता, निस्वार्थ सेवा एवं सिद्धांतों के प्रति उनकी दृढ़ता ने उन्हें जानने वालों के ह्रदय में स्थान दिलाया, और समय के साथ, उन्होंने अपने कठोरतम शत्रुओं का भी दिल जीत लिया।

संविदा का केन्द्र

अपनी सबसे पावन पुस्तक में, बहाउल्लाह ने अपने अनुयायियों से एक ‘संविदा’ (Covenant) बाँधी, जिसमें उनके स्वर्गारोहण के बाद अब्दुल-बहा की ओर मुड़ने का आदेश दिया गया है, जिन्हें वे “वह जिनका अभिप्राय ईश्वर ने किया, जो इस प्राचीन जड़ से फूटे” के रूप में वर्णित करते हैं। ‘अब्दुल-बहा के ‘संविदा के केन्द्र’ (Centre of the Covenant) होने का अधिकार बहाउल्लाह के अन्य लेखों, जिनमें उनकी वसीयतनामा भी सम्मिलित है, में स्थापित किया गया।

बहाउल्लाह के स्वर्गारोहण के समय से ही, ‘अब्दुल-बहा ने अपने पिता के धर्म के प्रचार-प्रसार की देखरेख की, जिसमें उत्तर अमेरिका और यूरोप जैसे नए क्षेत्रों तक यह पहुंचा। पूर्व और पश्चिम दोनों स्थानों के तीर्थयात्रियों का एक सतत प्रवाह उनके पास आता रहा, वे बहाई और जिज्ञासु अनुयायियों के साथ पत्राचार में व्यस्त रहते थे, और ‘अक्का नगर के लोगों की सेवा में वे एक आदर्श जीवन जीते थे।

‘अब्दुल-बहा के प्रभाव से ईर्ष्याग्रस्त उनके सौतेले छोटे भाई — मिर्ज़ा मुहम्मद अली — ने ‘अब्दुल-बहा के अधिकार को कमज़ोर करने और हथियाने का प्रयास किया। पहले से शत्रुवत अधिकारियों के मन में ‘अब्दुल-बहा के प्रति संदेह उत्पन्न करने हेतु और प्रयास किए गए, जिससे उन पर लगी कई पुरानी पाबंदियाँ फिर से लागू कर दी गईं, जो धीरे-धीरे हटाई जा रही थीं। यद्यपि इन आक्रमणों से उन्हें और उनके विश्वासपात्र अनुयायियों को बहुत पीड़ा पहुँची, वे समुदाय की एकता या बहाई धर्म के प्रचार पर स्थायी आघात पहुँचाने में असमर्थ रहे।

पश्चिम की यात्रा

1907 में ही, ‘अब्दुल-बहा ने अपना परिवार ‘अक्का की खाड़ी के उस पार, हाइफा नगर स्थानांतरित करना प्रारंभ कर दिया था, जहाँ उन्होंने कार्मेल पर्वत के नीचे एक मकान बनवाया। 1908 में, ओटोमन साम्राज्य की राजधानी में मची उथल-पुथल अंततः ‘यंग टर्क क्रांति’ (Young Turk Revolution) में बदल गई। सुलतान ने साम्राज्य के सभी धार्मिक और राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया, और दशकों की जेल तथा निर्वासन के बाद, ‘अब्दुल-बहा स्वतंत्र हो गए।

अत्यधिक कठिनाईयों के बावजूद, बाब के लिए पर्वत की मध्यम ऊँचाई पर, स्वयं बहाउल्लाह द्वारा निर्धारित स्थान पर, मकबरे (शrine) का निर्माण कार्य चलता रहा। मार्च 1909 में ‘अब्दुल-बहा ने बाब की पावन अस्थियों को उनके द्वारा बने मकबरे में रख पाने में सफलता पाई।

अगले वर्ष, ‘अब्दुल-बहा हाइफा से मिस्र गए, जहाँ वे एक वर्ष ठहरे, अपने दिन कूटनीतिज्ञों, विद्वानों, धार्मिक नेताओं और पत्रकारों से मुलाकातों में बिताए। 1911 के उत्तर ग्रीष्म में, वे यूरोप के लिए रवाना हुए, पहले थोनोन-ले-बैं (Thonon-les-Bains) के फ्रांसीसी स्थल पर रुके, फिर लंदन पहुंचे।

10 सितंबर 1911 को, लंदन के सिटी टेम्पल चर्च के मंच से, ‘अब्दुल-बहा ने अपने जीवन में पहली बार सार्वजनिक भाषण दिया। इंग्लैण्ड में उनके बाद के एक महीने के प्रवास में उन्होंने सतत सक्रियता बरती, बहाउल्लाह की शिक्षाओं और उनके समकालीन मुद्दों पर अनुप्रयोग का प्रचार-प्रसार किया—जनसुमूहों को संबोधित किया, प्रेस के साथ बैठकें की, व्यक्तिगत साक्षात्कार दिए। लंदन और फिर पेरिस के दिन उन्हीं प्रतिमानों का अनुसरण करते रहे जिन्हें उन्होंने आगे की यात्राओं में भी दोहराया।

1912 के वसंत में, ‘अब्दुल-बहा नौ माह के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की यात्रा पर गए। वे एक छोर से दूसरे छोर तक गए, हर प्रकार के दर्शकों को संबोधित किया, सभी स्तर व जाति के लोगों से मिले। वर्ष के अंत में, वे ब्रिटेन लौटे, और 1913 के प्रारंभ में फ्रांस गए, वहाँ से जर्मनी, हंगरी और ऑस्ट्रिया भी गए, मई में मिस्र लौटे, और 5 दिसंबर 1913 को पवित्र भूमि पहुँचे।

अब्दुल-बहा और उनके यात्रा-सहयात्री, 1912 में पेरिस के आइफ़िल टॉवर के नीचे।

पश्चिम में ‘अब्दुल-बहा की यात्राओं ने बहाउल्लाह की शिक्षाओं के प्रचार और यूरोप व उत्तर अमेरिका में बहाई समुदायों की मज़बूत स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दोनों महाद्वीपों पर उन्हें उच्चतमतम, सम्मानित श्रोताओं का स्वागत मिला, जो आधुनिक समाज की दशा से चिंतित थे, और जिनकी रुचि शांति, स्त्री-अधिकार, नस्लीय समानता, सामाजिक सुधार एवं नैतिक विकास में थी।

अपने प्रवास के दौरान, ‘अब्दुल-बहा का संदेश यह था कि मानवता के एकीकरण का वह युग, जिसकी लम्बे समय से प्रतीक्षा की जा रही थी, अब आ चुका है। वे प्रायः उन सामाजिक स्थितियों व अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक उपायों की आवश्यकता पर बोलते थे जो शांति की स्थापना के लिए जरूरी हैं। दो वर्ष से भी कम समय में ही, उनके विश्वव्यापी संघर्ष के पूर्वाभास यथार्थ में बदल गए।

महान युद्ध

जब प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा, ‘अब्दुल-बहा का बाहरी बहाई समुदायों से सम्पर्क प्रायः पूरी तरह कट गया। युद्ध के वर्षों में उन्होंने अपने आसपास के लोगों की भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति में जीवन समर्पित किया, कृषि कार्यों का संगठित रूप से निर्देशन किया, और हाइफा व ‘अक्का के सभी धर्मों के निर्धनों के लिए अकाल को टाल दिया। पलेस्टाइन के लोगों के प्रति उनकी सेवा के सम्मानस्वरूप, अप्रैल 1920 में ब्रिटिश साम्राज्य ने उन्हें नाइटहुड से सम्मानित किया।

युद्ध के वर्षों में ‘अब्दुल-बहा ने अपने सेवाकाल के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक का निर्माण किया: चौदह पत्र, जिन्हें ‘दैवीय योजना के फर्मान’ (Tablets of the Divine Plan) कहा जाता है, जो उत्तरी अमेरिका के बहाईयों को संबोधित थे—इनमें विश्व भर में बहाई शिक्षाओं के प्रचार के लिए आवश्यक आत्मिक गुणों, अभिवृत्तियों और व्यावहारिक कार्रवाइयों का मार्गदर्शन था।

अंतिम वर्ष

अपनी वृद्धावस्था में भी ‘अब्दुल-बहा अद्भुत प्रबलता से सक्रिय रहे। वे न केवल हाइफा के बहाईयों के, बल्कि एक उभरते अंतरराष्ट्रीय आंदोलन के प्रेमपूर्ण पितामह थे। उनके पत्राचार ने सामुदायिक संरचना के निर्माण के वैश्विक प्रयासों का मार्गदर्शन किया। पवित्र भूमि की तीर्थयात्रा करने वाले श्रद्धालुओं से उनका मेलजोल विश्व भर के विश्वासियों को शिक्षित व् प्रोत्साहित करने का एक और माध्यम बना।

हाइफ़ा में अब्दुल-बहा का अंतिम संस्कार, नवम्बर 1921।

उनके अंतिम संस्कार में दस हज़ार शोकाकुल जन, जो विविध धार्मिक पृष्ठभूमियों से थे, उपस्थित हुए।

जब 28 नवम्बर 1921 को 77 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ, तो उनके अंतिम संस्कार में 10,000 शोकाकुल, विभिन्न धर्मों के लोग उपस्थित हुए। तात्कालिक श्रद्धांजलि स्वरूप ‘अब्दुल-बहा को प्रशंसा के साथ ‘सत्य के मार्गदर्शक’, ‘शांति के स्तंभ’ तथा ‘महिमा और महानता के मूर्त रूप’ की संज्ञा दी गई।

‘अब्दुल-बहा के पार्थिव शरीर को कार्मेल पर्वत पर बने बाब के मकबरे की एक कक्ष में सुपुर्द-ए-खाक किया गया।

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